स्वतंत्र देशों में राजभाषा क्यों आवश्यक है?
स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं होती, वह भाषिक भी होनी चाहिए। किसी भी देश की सच्ची पहचान उसकी अपनी भाषा में ही छिपी होती है। महात्मा गांधी ने कहा था—
“जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं, उसका कोई राष्ट्र भी नहीं है।”
इस विचार से स्पष्ट है कि राष्ट्र का अस्तित्व और आत्मनिर्भरता उसकी भाषा से गहराई से जुड़ी होती है।
🔹 1. राष्ट्र की आत्मा: उसकी भाषा
राजभाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्र की आत्मा और संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है। यह नागरिकों को एकता के सूत्र में पिरोती है।
🔹 2. भाषिक स्वतंत्रता = वास्तविक स्वतंत्रता
महात्मा गांधी के अनुसार —
“कोई भी देश सच्चे अर्थों में स्वतंत्र नहीं है, जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता।”
इसलिए स्वतंत्र भारत में हिंदी को राजभाषा की पूर्ण अधिकारी घोषित किया गया, क्योंकि भारत की स्वतंत्रता का संघर्ष भी हिंदी के माध्यम से ही लड़ा गया था।
🔹 3. वैश्विक सम्मान और आत्मगौरव
वे देश जो अपनी भाषा को राजभाषा बनाते हैं, उन्हें विश्व समुदाय भी सम्मान की दृष्टि से देखता है।
जो देश विदेशी भाषा पर निर्भर रहते हैं, उनकी पहचान धुंधली हो जाती है।
🔹 4. हिंदी: हमारी राजभाषा और विश्व की शक्ति
भारत की राजभाषा हिंदी, आज विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है।
डॉ. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के अनुसार, विश्व में हिंदी बोलने वालों की संख्या 1,02,25,10,352 है।
हिंदी न केवल बोलने, बल्कि लिखने, पढ़ने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज़ से भी सर्वोत्तम है।
🔹 5. देवनागरी लिपि: वैज्ञानिक और अंतरराष्ट्रीय
हिंदी की मान्य लिपि देवनागरी को संसार की सबसे वैज्ञानिक लिपियों में माना गया है।
यह भारत के अतिरिक्त नेपाल की भी राष्ट्रीय लिपि है।
✅ निष्कर्ष:
हर स्वतंत्र राष्ट्र के लिए उसकी राजभाषा उसकी आत्मनिर्भरता, सांस्कृतिक गौरव और प्रशासनिक सशक्तता का प्रतीक होती है।
भारत के लिए हिंदी केवल भाषा नहीं, राष्ट्रीय एकता और वैश्विक पहचान का आधार है।
“राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र चल नहीं सकता।”